पृथ्वी में ही जैवमंडल तथा प्राकृतिक पर्यावरण का पारिस्थितिक तंत्र मौजूद है | जल,जमीनऔर वायु जहाँ मिलते है, वहीँ जैवमंडल स्थित होता है, और यहीं जीवन संभव है, जहाँ वायु,जल ,भोजन,उपयुक्त तापमान व प्रकाश विद्यमान है | जैवमंडल के भौतिक एवं रासायनिक पर्यावरण जैविक क्रियाओ को प्रभावित करते है | अतः सभी एक-दुसरे को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते है, कोई भी पर्यावरण घटक पूर्णरूप से आत्म-निर्भर नहीं है | पर्यावरण जगत का आधार है और प्राकृतिक पर्यावरण के सभी घटक या अवयव एकाकी रूप से प्रभावशाली होकर परस्पर प्रभावित करते है ,यही पारिस्थितिक तंत्र है | प्रकृति ने मानव जीवन की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए कई सहायक व ज़रूरी संसाधनों को उत्पन्न किया है ताकि पारिस्थितिकीय संतुलन कायम रहे | मानव की प्रकृति पर विजय पाने की लालसा ने संसाधनों को तेजी से नुकसान पहुंचाकर पारिस्थितिक तंत्र को असंतुलित कर दिया, जिससे पृथ्वी पर जीवधारियो का जीवन खतरे में पड़ गया है | वनों की कटाई, जल-धाराओ,नदियों आदि पर बांध और औद्योगिकिकरण आदि कारणों से पिछले ५० वर्षो में वनों के जीवधारियो पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है, फलस्वरूप पृथ्वी पर उपस्थित प्राणियो की प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर है, साथ ही इससे पर्यावरण पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है |
प्राचीन धर्मो की तरह वैदिक दर्शन की भी यह मान्यता है कि प्रकृति प्राणधारा से स्पन्दित है। सम्पूर्ण चराचर जगत अर्थात् पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, आग, वायु , जल, वनस्पति और जीव-जंतु सब में दैवत्व की धारा प्रवाहित है। वैदिक दर्शन ने हमें सम्पूर्ण अस्तित्व के प्रति गहन श्रद्धा और स्त्रेह से जीना सिखाया। इस दृष्टि का इतना अधिक प्रभाव था कि जब प्रकृति की गोद में स्थित एक आश्रम में पली-पोसी कालीदास की "शकुन्तला अपने पति दुष्यन्त से मिलने के लिए शहर जाने लगी तो उसकी जुदाई से वे पौधे जिन्हें उसने सींचा, फूल जिनकी उसने देखभाल की, मृग जिन्हें उसने पोषित किया आदि अत्यधिक दुखी हुए। वह ऎसा युग था जब मानव व प्रकृति के बीच पूर्ण तादात्म्य और सीधा सम्पर्क था। आवश्यकताएं सीमित थीं, मनुष्य इतना संतोषी था कि प्रकृति के शोषण की बात तो वह सपने में भी नहीं सोच सकता था। प्रकृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध ही सभी धर्मो का मर्म था। प्राचीन संस्कृति में भी प्रकृति को दैविक स्वरुप के रूप में पूजा जाता था | हम प्रकृति की रक्षा करें,इसे अनुराग करें व स्वस्थ तथा संतुलित जीवन-यापन करें, इसी सोच के साथ की विकास जरुरी है, किन्तु पर्यावरण के मूल्यों पर नहीं | " विनाश रहित विकास " यही आज की महती ज़रूरत है, अतः
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम पूर्णा पूर्ण मुच्यते |
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा व शिष्यते ||
अर्थात अपनी इच्छाओ को वश में रख प्रकृति से उतना ही ग्रहण करें जिससे उसे क्षति ना हो| वृक्षों, जल व धरती पर जीवो की रक्षा धर्म हो |
समय ने करवट बदली। शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ मनुष्य का प्रकृति से सम्पर्क टूट गया। तथा कथित विकास की अंधी दौड़ में उसकी यह अनुभूति समाप्त हो गई कि प्रकृति भी एक जीवन्त शक्ति है। इस विकास का अर्थ था प्रकृति का उसके अस्तित्व की कीमत पर शोषण। एक तरफ जीवन की आवश्यकताओं व मन की इच्छाओं और दूसरी ओर विवेकपूर्ण आचरण की आवश्यकता के बीच संतुलन बिगड़ गया। शरीर को आवश्यकता
है, रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा व अन्य सभी भौतिक सुख सुविधाओं की। मन इच्छाओं का केन्द्र है, जो चाहता है कि इच्छाएं पूरी हों । इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिए हमारा इस तरह मार्गदर्शन करती है कि प्रकृति के पुनर्चक्रीकरण की प्रक्रिया व सभ्य समाज के महीन तन्तु अस्त-व्यस्त नहीं हों। इसका ही परिणाम है कि असंतुलित व्यक्तित्व तैयार हो रहे हैं। जितनी उच्च शिक्षा, उतना ही अधिक असंतुलन। इसीलिए तथा कथित शिक्षित लोग ही पारिस्थितिकी और पर्यावरण समरसता के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। वे प्रकृति को जड़ वस्तु मानते हैं जो मानो मानव के उपयोग और शोषण के लिए ही बनी हो। मनुष्य के अस्तित्व के लिए प्राकृतिक पर्यावरण बहुत महत्वपूर्ण है। भावी पीढियों के लिए पर्यावरण का पोषण और देखभाल आवश्यक है, जिसकी उपेक्षा की जा रही है |
प्राणियो और पर्यावरण के बीच सम्बन्ध - हमारी पृथ्वी पर प्राणियो ( पशु, पक्षी और स्थलीय व समुद्रीय जीव -जंतु) की अनगिनत प्रजातियाँ है, जो हमारे पर्यावरण के पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित करने में अभूतपूर्व योगदान देते है | किन्तु इनकी प्रजातिओं में कुछ का अस्तित्व तो समाप्त हो चूका है , शेष पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है | पृथ्वी के भिन्न-भिन्न इलाको से प्राणियो का मौसम के परिवर्तन के समय पलायन होता है, और उनके इन प्रवास से पर्यावरण के बदलते स्वरुप को पहचाना सरल हो जाता है | कुछ पशु -पक्षियों की बची प्रजातियो और उनका पर्यावरण के साथ नाता विभिन्न मौसमो में देखने को मिल ही जाता है, जो इस प्रकार है, ठंड का मौसम पक्षी प्रेमियों के लिए सर्वाधिक रोमांचकारी होता है, इस मौसम में प्रवासी पक्षी नदियों, झीलों और नमभूमि (आद्र्रभूमि) के आसपास डेरा डाले होते हैं, इन्हें करीब से देखना प्रकृति प्रेमियों के लिए अद्भुत क्षण होता है | हमारे देश के प्रान्तों में से एक गुजरात में इस प्रकार की दलदली भूमि का बड़ा क्षेत्रफल है,जहां भारी संख्या में प्रवासी पक्षी डेरा डालते हैं |
दलदली क्षेत्र का सारा या कुछ भाग वर्ष भर जल से भरा रहता है | ऐसा भू-क्षेत्र जैव विविधता संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है| दलदलीय क्षेत्र अनेक लुप्त प्राय: जीवों का ठिकाना हैं और देश की पारिस्थितिकी सुरक्षा में इनकी अहम भूमिका है | खाद्यान्नों की कमी और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरों के बीच हमें दलदलों को बचाने की जरूरत है ताकि वे पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने में जरूरी भूमिका निभा सकें | नमभूमि जल को प्रदूषणमुक्त बनाती है | भू-सतह का लगभग छह प्रतिशत भाग नमभूमि है, इसमें झीलें, नाले, स्रेत, तालाब और प्रवाल क्षेत्र शामिल होते हैं| भारत में नमभूमि ठंडे और शुष्क इलाकों से होकर मध्य भारत के कटिबंधीय मानसूनी इलाकों और दक्षिण के नमी वाले इलाकों तक फैली है| यह भू-क्षेत्र प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है, बाढ़ नियंत्रण में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है |शुष्क मौसम के दौरान यह पानी को सहजे रखता है और बाढ़ के समय पानी का स्तर कम बनाए रखने में सहायक होता है, बाढ़ के समय नमभूमि पानी में मौजूद तलछट और पोषक तत्वों को अपने में समा लेती है और इन्हें सीधे नदी में जाने से रोकती है. इस प्रकार झील, तालाब या नदी के पानी की गुणवत्ता बनी रहती है |
नमभूमि जैवविविधता को सुरक्षित बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, साथ ही शीतकालीन पक्षियों और विभिन्न जीव-जंतुओं का आश्रय स्थल होती है | विभिन्न प्रकार की मछलियां और जंतुओं के प्रजनन के लिए भी यह भूमि उपयुक्त होती है |खास बात यह है कि नमभूमि में समुद्री तूफान और आंधी के प्रभाव को सहन करने की क्षमता होती है. समुद्री तटरेखा को स्थिर बनाए रखने में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान होता है | जो समुद्र की धारा से होने वाले कटाव से तटबंध की रक्षा करती है. नमभूमि अपने आसपास बसी मानव बस्तियों के लिए जलावन, फल, वनस्पति, पौष्टिक चारा और जड़ी-बूटियों का स्रोत होती है, यह वास्तव में पानी के संरक्षण का प्रमुख स्रोत है | गुजरात स्थित नल सरोवर, थोल, वेलावदार, तारापुर एवं भरतपुर स्थित
केउलादेव पक्षी विहार कई प्रवासी पक्षियों की पसंदीदा स्थल है. ये क्षेत्र राजहंस, पनकौआ, बायर्स
वॉचार्ड, ओस्प्रे, इंडियन स्किमर, श्याम गर्दनी बगुला, संगमरमरी टील, बंगाली फ्लोरीकान जैसे पक्षियों का मनपसंद स्थल होते हैं |
दल-दल में प्राणियो के अस्तित्व को खतरा - भारत में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां नमभूमि की बर्बादी के साथ ही जंगली जानवरों या पौधों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है. उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के दलदलीय क्षेत्र में ‘दलदली हिरण’ पाया जाता है. इस प्रजाति के हिरणों की संख्या भी कम हो रही है. यह संख्या लगभग एक हजार के आसपास बतायी जाती है. इसी प्रकार तराई वाले क्षेत्रों में फिशिंग कैट यानी मच्छीमार बिल्ली पर भी बुरा असर पड़ रहा है. गुजरात के कच्छ क्षेत्र में जंगली गधा भी खतरे में है. एक सींग वाला भारतीय गैंडा भी लुप्तप्राय प्राणियों की श्रेणी में शामिल हो गया है |
आज नमभूमि से जुड़े ओटर, गैंजेटिक डॉल्फिन, डूरोंग, एशियाई जलीय भैस आदि अनेक जीवों का अस्तित्व संकट में है. जलीय प्राणियों जैसे कछुआ, घड़ियाल, मगरमच्छ,जैतूनी रिडली और जलीय मॉनीटर पर भी नमभूमि के प्रदूषित होने के कारण संकट मंडरा रहा है. जीवों के अतिरिक्त कुछ वनस्पतियां भी इससे प्रभावित हो रही हैं. कई सारे वनस्पति, सरीसृप, पक्षियों और जनजाति आदि की निवास स्थली नम भूमि बढ़ते प्रदूषण, बिगड़ती जलवायु, विकास के दुष्परिणामों आदि के कारण अपना स्वरूप खोती जा रही हैं |
लुप्त होते बाघों व अन्य जंगली जानवरों को सुरक्षित रखना जरुरी है - बाघों के सुरक्षित बसेरे के रूप में ख्यातिप्राप्त कार्बेट नेशनल पार्क , जहां इसे भारतवर्ष में विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके राष्ट्रीय पशु बाघ को बचाए रखने की सफलता हासिल है, वहीं पार्क की सरहदों के भीतर करीब आधा दर्जन वन्य प्राणियों के वजूद के खात्मे की विडंबना भी जुड़ी हुई है। हाल ही में पार्क के सात दशकों से भी पुराने इतिहास पर हुए शोध में यह खुलासा हुआ है कि पार्क की स्थापना के समय पाई जाने वाली आधा दर्जन दुर्लभ जीवों की प्रजातियां अब लुप्त हो चुकी हैं। यही नहीं, पार्क में कई अन्य प्रजातियों पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे है। दरअसल 1936 में कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना के समय यहां पाए जाने वाले जीव-जन्तुओं की सूची तैयार की गई थी। सूची में शामिल जंगली कुत्ते, लकड़बग्घा, लोमड़ी पार्क से पूरी तरह से गायब हो चुके है। जिम कार्बेट की किताबों व पार्क के पहले डीएफओ चैम्पियन की फोटोग्राफों में दिखाई देने वाले दुर्लभ जीव पैंगोलिन व रैटल का अस्तित्व भी पार्क से समाप्त हो चुका है। किसी जमाने में पार्क के आसपास दिखने वाले चैसिंघे व बारहसिंघों भी पूरी तरह से लुप्त हो चुके है।
1977 में आखिरी बार बारहसिंघे को कार्बेट के ढिकाला में देखा गया था। लुप्त हो चुके जीवों के अलावा वर्तमान में पार्क में बहुत कम संख्या में मौजूद हाग-डियर यानि पाड़ा,ऊदबिलाव, घडि़याल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है। कार्बेट इतिहास पर शोध में पाया गया है,कि पार्क से लुप्त हो चुके जंगली कुत्ते मध्य भारत, पेंच व कान्हा टाइगर रिजर्व में व लकड़बग्गा कभी राजाजी नेशनल पार्क में दिखाई देते है। वैसे बारहसिंघा कभी-कभार को झिलमिल ताल के आसपास दिखाई पड़ जाता है। साथ ही पाड़े के संरक्षण के लिए बाड़ा बनाने की योजना है। अभी तक सच्चाई यह है, कि कुल कितनी प्रजातियां लुप्त हुई है, इसकी जानकारी नहीं है |
शेर क्यों और भी जीव विलुप्त होते जा रहे हैं - आज कल दूरदर्शन पर विभिन सेलिब्रिटीयों के द्वारा सन्देश दिया जा रहा है, हमारे देश में केवल 1411 शेर रह गएँ हैं, परन्तु इसके अतिरिक्त और भी वो जीव साधारणतया बाग,बगीचों और घरों में पाए जाते थे, वो भी तो लुप्तप्राय: होते जा रहें हैं |उदहारण के लिए,
(१) फूल से रस चूसती मधुमक्खी, जो फूलों से मकरंद चूस कर,शहद में परिवर्तित करती हैं, इन मधुमक्खियों के छत्ते पेड़ो पर लटकते दिखाई दे जाते थे, और जिन छत्तों पर यह मधुमक्खियाँ पर दिखाईं देतीं थी, अब तो यह नजारा देखना दुर्लभ सा हो गया है, धरती पर तेजी से बनते घरों के कारण, इनका आशियाना बाग़,बगीचें छिनते जा रहें हैं, और यह शहद की मक्खियाँ लुप्तप्राय: होतीं जा रहीं हैं |
(२) रंगबिरंगी, मनमोहक बागों में,फूलों का रस चूसती हुईं,तितलियों पर, बच्चों को यह रंगबिरंगी तितलियाँ इतनी भाती थीं, कि इनकों पकड़ने के लिए इनका पीछा करतें थे | इनका भी आशियाना बाग़,बगीचें ही थे, लोगों के अपना आशियाना बनाने के स्थान,पर इन रंगबिरंगी तितलियों का आशियाना बहुत हद तक छिन लिया हैं | यह नन्हे,नन्हे जीव उड़ते हुए, एक फूल पर बैठ कर और फिर दूसरे फूल पर बैठ कर, फूलों के परागन में सहायता करतें हैं, और इस प्रकार से फूलों से लदी हुई बगिया के निर्माण में सहायक होतें हैं,परन्तु यह भी लुप्त होने की ओर अग्रसर हो रहें हैं |
(३) एक नन्ही सी चिड़िया से कौन परिचित नहीं होगा, हमारे, घरों में लटकी हुई फोटों के पीछे यह अपना घोंसला बनाती थी, लेकिन अब तो गगनचुम्बी इमारतों का निर्माण होने से उन्हें अपना घोसला बनाना कठिन हो गया हैं| यह चिड़िया बारिश के जमीन पर पड़े हुए पानी में नहाते हुयें दिखाई दे जातीं थी, पर अब कहाँ वो नजारा देखने को मिलता है ?
(४) आज कल प्रक्रति का सफाई कर्मचारी यानि कि गिद्ध जो मरे हुए जीव,जंतुओं को खा-खाकर सफाई को अंजाम देते हैं, वो भी तो लुप्त होते जा रहें हैं | केवल शेरो की संख्यां तो कम हो गयीं हैं, परन्तु यह जीव जंतु भी तो लुप्त होने के कगार की ओर अग्रसर हो चुकी है |
बड़े- बड़े बांधो के निर्माण से लुप्त होते जानवर- यह बात निःसंकोच रूप से स्वीकारी जाती है कि सन् 1912 के जंगली जानवरों और पक्षियों के संरक्षण संबंधी कानून के कारण तथा अंग्रेजी शासन के राजाओं के सहयोग से जंगली जानवरों और अनेक मूल्यवान पक्षियों को सुरक्षा मिल सकी और यह काम 1930 तक सुचारु रूप से चलता रहा, पर द्वितीय महायुद्ध के बाद जंगली जानवरों की संरक्षण-नीति में आकस्मिक परिवर्तन हो गया। झाड़ियों और
जंगलों के बुरी तरह कटने से जंगली चीता तो समाप्त ही हो गया और स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि भारत में वह प्राकृतिक स्थिति में नहीं पाया जाता। जलप्रपातों और बाँधों से बिजलीघर बनाने की गतिविधि और जंगल काटकर खेती करने की होड़ से जंगली जानवरों का विनाश हो रहा है और उचित सुरक्षा के अभाव में अनेक अन्य पशु भी चीते की गति को ही प्राप्त होंगे। गैरकानूनी ढंग से शिकार और शिकार संबंधी अपर्याप्त कानूनों के कारण जंगली जानवरों का काफी विनाश होता है, पर यह बहुत कुछ रोका भी जा सकता है।
उत्तरप्रदेश व उत्तरांचल के इलाको में तो 1940 तक प्रत्येक प्रकार के जानवरों का बाहुल्य था। इतना बाहुल्य कि वहाँ का जंगल कट जाने पर ईख के खेतों में रहकर अब भी शेरों के दो-चार जोड़े सूअर और चीतलों पर अपना निर्वाह करते हैं। कुमायूँ में रामगंगा का जो बाँध बाँधा गया है, उससे पूरी आशंका है कि वहाँ के जंगली जानवरों के नैसर्गिक निवास-क्षेत्र का एक बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो चुका है,और वहाँ से वन्यजीवों का लोप हो जाना संभव है। अन्य स्थानों पर इन पशुओं को संरक्षण मिलना जंगलों की कमी के कारण असंभव ही है। मैसूर शहर से 50 मील की दूरी पर कक्कनकोट का जो बाँसों का सघन वन है, वह हाथियों का परम क्रीड़ा-क्षेत्र है, पर काबिनी नदी पर बाँध बँधने से उनका बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो गया है।
बाँस और हाथी-जीवन का बड़ा घनिष्ट संबंध है। यदि बाँसों का यह जंगल नष्ट हो गया तो मैसूर की एक अमूल्य सम्पदा भी नष्ट हो जाएगी। उद्योग, पानी और बिजली मिलने के साथ-साथ यदि बाँस-वन बना रहे तो जंगली हाथी की भी रक्षा हो सकेगी। तात्पर्य यह है कि बाँध-निर्माण योजनाओं और कृषि-विकास-योजनाओं में वनों तथा जंगली जानवरों की रक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता। यदि इन योजनाओं के विशेषज्ञों, वन-विभाग के कार्यकर्ताओं और संतुलित जीवन के विशेषज्ञों का मत लिया जाए और उनके सहयोग से योजनाएँ बनें तो उद्योग-धंधे भी चल सकते हैं और जंगली जानवरों की रक्षा भी हो सकती है। उद्योगों और धंधों की खातिर बाँध बनना चाहिए, बिजली भी पैदा होना चाहिएपर इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि बेकार जमीनों में जलाशय बन सकें तथा जंगली जानवरों के लिए समुचित स्थानों की रक्षा हो सके, तो मनुष्यों का और भी अधिक हित होगा।
सुरक्षित क्षेत्रो में सिमट रहे प्राणी -
भारत में आजकल जानवरों के लिए जो सुरक्षित क्षेत्र है, अर्थात वे स्थान, जहाँ शिकार खेलना वर्जित है, वहाँ चोरी-छिपे शिकार खेला जाता है। उसकी रोकथाम अतिआवश्यक है। भारतीय गैंडे के लोप हो जाने की बड़ी भारी आशंका है। एक समय था जब भारत के उत्तर पश्चिम से लगाकर इंडोचीन तक भारतीय गैंडा पाया जाता था। बाबर ने सिंधु नदी के तट पर गैंडे का शिकार खेला था, पर अब नेपाल के चितावन जंगल और पश्चिमी बंगाल के उत्तरी जंगलों तथा असम के एक अति सीमित क्षेत्र में कतिपय भारतीय गैंडों को संरक्षण प्राप्त है। असम के कांजीरंगा-क्षेत्र में लगभग 300 गैंडे मारने का एक कारण यह है कि लोगों में एक भ्रांति फैली है कि उसके सींग के बने प्याले में यह अद्भुत शक्ति बताई जाती है कि उसमें जहर मिली कोई चीज रखने से जहर का पता चल जाता है।
इसके अतिरिक्त गैंडे के सींग का बुरादा मूल्यवान दवाइयों के काम आता है। वर्तमान औद्योगिकीकरण के युग में गैंडे के सींग का मूल्य बहुत अधिक है। गत 1961 में असम के नौगाँव क्षेत्र के 13 सुरक्षित गैंडों में से सबसे बड़ा नर गैंडा मरा पाया गया और उसकी लाश से उसका सींग गायब था। उसके हृदय में गोली लगी थी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में गैंडे के सींग का मूल्य लाखों रुपए होता है। ऐसी दशा में भारतीय गैंडे को बचाने के लिए जंगली जानवरों के सुरक्षा संबंधी कानूनों में परिवर्तन करके कड़ाई से पालन करना होगा। भारत से लोप होने वाले ऐसे पशुओं को मारने वालों को मृत्यु-दंड नहीं तो कालापानी या अन्य कठोर दंड की व्यवस्था करना होगी और देखभाल का भी समुचित प्रबंध करना होगा।
भारतीय जंगली भैंस भी एक ऐसी जानवर है, जो कदाचित अपने अंतिम दिन गिन रही है। अब से कुछ ही वर्ष पूर्व वह मध्यप्रदेश में काफी संख्या में पाई जाती थी, पर अब उसकी संख्या घट गई है और असम, मध्यप्रदेश तथा उड़ीसा के एक सीमित क्षेत्र में ही पाई जाती है। जंगली भैंस के रहने का स्थान आदमियों की आबादी का नहीं है और न वह जंगलों में जाती है, वह तो दलदल तथा घास वाले क्षेत्रों में ही रहती है। बढ़ती खेती के प्रसार-आंदोलन में वह एक प्रकार से धकेलकर एक संकुचित क्षेत्र में पहुँचा दी गई है। यही गति रही तो उसका खात्मा भी निश्चित है। माँसाहारियों के लिए भैंस से माँस मिलता था और उद्योग-धंधों के लिए चमड़ा, सींग आदि।
भारतीय जंगलों की एक और विभूति भारतीय गौर के भी खत्म होने की आशंका है। दक्षिण की वायनाड पहाड़ियों का वह सिरमौर है। विशालकाय वह इतना है कि शेर भी आसानी से नहीं मार सकता । भारी इतना कि उसके शव का मूल्य माँस के रूप में लगभग पाँच सौ रुपए प्रति जानवर होता है। अब जो वहाँ पर बाँध आदि की बहुउपयोगी योजना बन रही है, उसके खत्म होने की आशंका है।
भारतीय जंगली चीता झाड़ियों में रहने वाला पशु है। दक्षिण और मध्यप्रदेश में वह बहुतायत से पाया जाता है। घने जंगलों में वह रहता नहीं है और कृषि प्रसार के लिए झाड़ियाँ काट डाली गईं तो नासमझ शिकारियों की गोली से वह मारा गया। वर्षों की खोज के बाद भी भारतीय जंगली चीता आज भारत के किसी भी क्षेत्र में अब नहीं मिलता। सन् 1951 में ही वह प्राकृतिक अवस्था में अंतिम बार देखा गया था।
भारतीय सिंह या गीर सिंह की संख्या भी सीमित है, जो अनुमानतः 300-500 होगी। वर्षों से उन्हें संरक्षण प्राप्त है, इसलिए वे अभी इतनी संख्या में हैं। हिरणों और सूअरों की संख्या भी घट गई है, अतः सिंहों की प्राकृतिक खुराक कम हो गई है। उस पर नासमझ और लालची शिकारी पैसे और कद बढ़ाने के लिए जहाँ कहीं सिंह मिलते हैं उन्हें मार डालते हैं।
कच्छ के रनों- छोटी खाड़ियों के दलदली इलाकों में पाया जाने वाला दुर्लभ भारतीय जंगली गधा जो विश्व में भी केवल 4954 वर्ग किमी में फैले कच्छ के रन में ही पाया जाता है और मानसून के दौरान पानी भरने से बने छोटे-छोटे टापुओं और खाड़ियाँ यानी 'बेट' पर उगने वाली घास व वनस्पति खाता है, वह भी सिकुड़कर लुप्त होने के कगार पर आ गया है, क्योंकि खेती के लिए ये छोटी खाड़ियाँ भी उपजाऊँ बनाई जा रही हैं तथा भरी जा रही हैं। अतः पूरी आशंका है कि भारतीय जंगली गधा भी चीते की गति को प्राप्त हो सकता है।
कुछ प्रसन्नता की बात यह है कि मस्तक श्रृंग हिरण, जिसके विषय में सन् 1951 में रिपोर्ट लिख दी गई थी कि वह खत्म हो चुका है, अनायास वह 3-4 की टोली में मणिपुर में पाया गया। भारत सरकार ने उसे फौरन संरक्षण दिया और सुरक्षित किया जिससे वर्तमान में अनुमानतः उनकी संख्या अब सौ के ऊपर पहुँच गई है।लुप्तप्राय प्रजातियां- साइबेरियाई बाघ, लुप्तप्राय बाघ की एक उप-प्रजाति है; बाघ की दो उप-प्रजातियाँ पहले ही लुप्त हो चुकी है
लुप्तप्रय प्रजातियां, ऐसे जीवों की आबादी है, जिनके लुप्त होने का जोखिम है, क्योंकि वे या तो संख्या में कम है, या बदलते पर्यावरण या परभक्षण मानकों द्वारा संकट में हैं. साथ ही, यह वनों की कटाई के कारण भोजन या पानी की कमी को भी द्योतित कर सकता है. प्रकृति के संरक्षनार्थ अंतर्राष्ट्रीय संघ ( IUCN ) ने 2006 के दौरान मूल्यांकन किए गए प्रजातियों के नमूने के आधार पर, सभी जीवों के लिए लुप्तप्राय प्रजातियों की प्रतिशतता की गणना 40 प्रतिशत के रूप में की है
कई देशों में संरक्षण निर्भर प्रजातियों के रक्षणार्थ कानून बने हैं
उदाहरण के लिए, शिकार का निषेध, भूमि विकास या परिरक्षित स्थलों के निर्माण पर प्रतिबंध विलुप्त होने की संभावना वाली कई प्रजातियों में से वास्तव में केवल कुछ ही इस सूची में दर्ज हो पाते हैं और क़ानूनी सुरक्षा प्राप्त करते हैं
कई प्रजातियां विलुप्त हो जाती हैं, या बिना सार्वजनिक उल्लेख के संभावित रूप से लुप्त हो जाती हैं.
कुछ विशेष लुप्त होते प्राणी की संरक्षण श्रेणी व योजनाये- किसी प्रजाति की संरक्षण की स्थिति उन लुप्तप्राय प्रजातियों के जीवित न रहने की सूचक है
एक प्रजाति के संरक्षण की स्थिति का आकलन करते समय कई कारकों का ध्यान रखा जाता है , केवल बाक़ी संख्या ही नहीं, बल्कि समय के साथ-साथ उनकी आबादी में समग्र वृद्धि या कमी, प्रजनन सफलता की दर, ज्ञात जोख़िम, और ऐसे ही अन्य कारक ज्ञात संरक्षण स्थिति में होते है
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, 194 देशों ने लुप्तप्राय और अन्य जोख़िम वाली प्रजातियों के संरक्षण के लिए जैव विविधता कार्य-योजना तैयार करने के लिए सहमति जताने वाले समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका में इस योजना को आम तौर पर प्रजाति रिकवरी प्लान कहा जाता है
विलोपन की जोख़िम वाली प्रजातियों के लिए IUCN द्वारा प्रयुक्त अधिक सामान्य शब्द है संकटापन्न प्रजातियाँ , जिसमें लुप्तप्राय और गंभीर संकटग्रस्त सहित कम जोखिम वाली असुरक्षित प्रजातियों की श्रेणी भी सम्मिलित हैं. IUCN श्रेणियों में शामिल हैं:
§ लुप्त :- प्रजातियों का अंतिम शेष सदस्य मर चुका है, या यथोचित संदेह से परे यह माना जाता है कि मर चुका हैं, जैसे थैलासाइन,डोडो,यात्री कबूतर, ताएरानोसरस,कैरबियनमौंक सील
§ जंगल में लुप्त :- बंदी प्राणी जीवित रह सकते हैं, लेकिन कोई मुक्त, प्राकृतिक आबादी मौजूद नहीं है , जैसे - एलागोस कुरासो
§ गंभीरतः- संकटग्रस्त : निकट भविष्य में विलोपन के अत्यंत उच्च जोखिम का सामना कर रहे हैं. उदाहरण: अरकान वन कछुए,जवान रायिनो, ब्राज़ील के मर्गैंसर,घड़ियाल
§ लुप्तप्राय :-निकट भविष्य में विलुप्त होने की बहुत ही उच्च जोखिम का सामना कर रहे हैं. उदाहरण: -नीला व्हेल,विशालकाय पांडा, बर्फीला तेंदुआ, अफ़्रीकी जंगली कुत्ता, शेर,करौंद सलीतरी ईगल,रंगस, असुरक्षित : मध्यम दर्जे के विलोपन के उच्च जोखिम का सामना कर रहे है जैसे- चीता गौर ,सिंह ,आलसी भालू ,वोल्वोराइन,ध्रुवीय भालू , संरंक्षण निर्भर : निम्नलिखित पशु को गंभीर ख़तरा नहीं है, लेकिन ये पशु संरक्षण कार्यक्रम पर निर्भर हैं, जैसे -चित्तीदार हैना,तेंदुआ,शार्क, काला कैमान, संकट के निकट : निकट भविष्य में इनके लिए ख़तरा हो सकता है,जैसे-ब्लुबिल्ड-डक,सौलितिरी ईगल, मैंड वूल्फ, बहुत ही कम चिंताजनक : इन प्रजातियों के अस्तित्व के लिए कोई तात्कालिक ख़तरा नहीं है, जैसे-नुटका साइप्रस ,काठ कबूतर,हार्प सील
कुछ संरक्षण क़ानूनी विवाद एवं उनका प्रभाव- पर्यावरण को प्राणियो की विलुप्त होती संख्या से सबसे अधिक नुक्सान हो रहा है, क्योंकि यही प्राणी पर्यावरण को सुरक्षित रखने मे अहम् रोल अदा करते है
किन्तु आज विश्व-भर में पर्यावरण एवं प्राणियो की सुरक्षा से जुड़े कानून बनाने में सरकारे विवादों में व्यस्त है
अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में, "विलुप्त होने के ख़तरे वाली ज्ञात प्रजातियों की संख्या लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम के तहत संरक्षित संख्या से दस गुणा अधिक है
अमेरिकी मछली और वन्य-जीव सेवा और साथ ही, राष्ट्रीय समुद्री मत्स्य सेवा को लुप्तप्राय प्रजातियों के वर्गीकरण और संरक्षण के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, तथापि, सूची में किसी विशिष्ट प्रजाति को जोड़ना, काफ़ी लंबी, विवादास्पद प्रक्रिया है
कुछ लुप्तप्राय प्रजातियों के क़ानून विवादास्पद रहे हैं, लुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में किसी प्रजाति को रखने के लिए मानदंड, और उनकी आबादी की बरामदगी पर सूची में से किसी प्रजाति को हटाने के लिए मानदंड भले ही भूमि विकास पर प्रतिबंध का मतलब सरकार द्वारा भूमि का "अधिग्रहण" हो , संबंधित सवाल है कि क्या निजी ज़मीन के मालिकों को उनकी भूमि के उपयोग के प्रति नुक्सान के लिए मुआवजा दिया जाना चाहिए, और संरक्षण क़ानूनों के प्रति समुचित अपवाद हासिल करना चाहिए या नहीं
लुप्तप्राय प्रजातियों के रूप में सूचीकरण का नकारात्मक प्रभाव हो सकता है, क्योंकि यह प्रजाति को विशेष रूप से संग्रहकर्ताओं और शिकारियों के लिए और अधिक वांछनीय बना सकती हैं.
इस प्रभाव को संभावित रूप से कम किया जा सकता है, जैसे कि चीन में व्यावसायिक रूप से कछुए उत्पन्न करने से, शिकार के प्रति संकटग्रस्त प्रजातियों पर दबाव कुछ कम हो रहा है
लुप्तप्राय प्रजाति अधिनियम की प्रभावशीलता पर, जिसने "लुप्तप्राय प्रजातियां" शब्द को गढ़ा है, व्यापार तथा उसके प्रकाशनों के समर्थक समूहों द्वारा सवाल उठाया गया है, लेकिन फिर भी इन प्रजातियों के साथ काम करने वाले, वन्य-जीव वैज्ञानिकों द्वारा, इसे व्यापक रूप से प्रभावी बरामदगी उपकरण के रूप में मान्यता दी गई हा
उन्नीस प्रजातियों को सूची से हटाया तथा बरामद कर लिया गया है
नैतिकता का प्रश्न -
इस प्रकार विभिन्न प्राणीयों की लुप्त प्रजातियों के बारे में अधिक जानने की खोज के मामले में भी, कई परिस्थिति-विज्ञानी, पर्यावरण और निवासियों पर उनके प्रभाव पर विचार नहीं करते हैं. यह स्पष्ट है कि "पारिस्थितिकी ज्ञान का अन्वेषण, जो मूल्यवान पारिस्थितिकी तंत्र की संपत्ति और सेवाओं के साथ-साथ पृथ्वी की जैव विविधता के संरक्षण के बारे में समझने के प्रयासों के सूचनार्थ बहुत महत्वपूर्ण है, अक्सर जटिल नैतिक सवाल उठाता है" और इन मुद्दों को पहचानने और उन्हें सुलझाने के लिए कोई स्पष्ट रास्ता नहीं है
पर्यावरणविद, व्यक्तिगत पशुओं के कल्याण की बजाय, समग्र पारिस्थितिकीय क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करते हैं
ऐसे व्यापक दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित करने से प्रत्येक व्यक्तिगत प्राणी का मूल्य घट जाता है
"इस समय जैव-विविधता संरक्षण दुनिया के सतही क्षेत्र के 11.5% संसाधन प्रबंधन के लिए आधारभूत लक्ष्य है
जीवन का अधिकांश भाग इन संरक्षित क्षेत्रों से बाहर आता है और यदि लुप्तप्राय प्रजातियों का संरक्षण प्रभावी होना है, तो उन पर विचार किया जाना चाहिए.जैव विविधता तथा लुप्त प्रजातियों पर प्रभाव - पृथ्वी ग्रह की जैव विविधता के संरक्षण के लिए हमें विचार करना होगा कि क्यों अनेक प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं
विश्व -भर में आवास नुक्सान प्रजातियों के संकटग्रस्त होने का सबसे व्यापक कारण है, जो जोखिम वाली प्रजातियों में 85% को प्रभावित करता है
जब किसी जानवर के पारिस्थितिकी तंत्र का अनुरक्षण नहीं होता है, वे अपना घर खो बैठते हैं और नए परिवेश को अपनाने या नष्ट होने के लिए मजबूर हो जाते हैं. प्रदूषण एक और कारक है जो कई प्रजातियों के, विशेष रूप से बड़ी मात्रा में जलीय जीवों के लुप्तप्राय होने का कारण बनता है. इसके अलावा, अतिशोषण, बीमारी और जलवायु परिवर्तन के कारण कई प्रजातियां लुप्तप्राय हुई हैं
बहरहाल, दुनिया में अधिकांश वन्य जीवों के लुप्तप्राय होने का प्रमुख महत्वपूर्ण कारक, प्रजातियों पर मानव प्रभाव और उनका परिवेश है, "पिछली कुछ सदियों से मानवों द्वारा संसाधन, ऊर्जा और स्थलों के उपयोग में तेज़ी आई है, दुनिया के अधिकांश भागों में जैव विविधता में पर्याप्त रूप से ह्रास हुआ है
मूलतः, पर्यावरण पर जैसे-जैसे मानव का प्रभाव बढ़ता है, जीवन की विविधता घटती जाती है. लोग लगातार अपने लिए अन्य प्रजातियों के संसाधनों और स्थलों का उपयोग करने लगे हैं, जो नकारात्मक रूप से कई जीवों के अस्तित्व दर को प्रभावित कर रहा है
लोग अपने मानक भी तय करते हैं कि किन प्रजातियों को बचाया जाना चाहिए और कौन-सी प्रजातियां उनके लिए महत्वहीन या अवांछनीय हैं
आज पर्यावरण एवं जीव वैज्ञानिक मौजूदा प्रजातियों पर मानव प्रभाव का प्राणियों के प्रति अपने ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रजातियों पर शोध कर रहे हैं, वहीं इसके कारण जिन वन्य-जीवों का वे अध्ययन कर रहे हैं, उन पर पड़ने वाले प्रभाव पर भी विचार किया जाना चाहिए
प्रजातियों और उनके परिवेश पर मानवीय प्रभाव का बहुत ही नकारात्मक असर पड़ता है
लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि दुनिया में सभी प्रजातियों के अनुरक्षण और उनके विकास को बाधित ना करने में मदद करें
प्रजातियों के अनुरक्षण का महत्त्व -मानव जीवन के विकास के लिए जीवन और जीवन प्रणालियों की विविधता एक आवश्यक शर्त है, कई लोग आज की दुनिया में जैव-विविधता के अनुरक्षण के महत्व पर सवाल उठाते हैं, जहां संरक्षण प्रयास महंगे साबित होते हैं और जिनमें काफ़ी समय लगता है
तथ्य यह है कि मानव अस्तित्व के लिए सभी प्रजातियों का संरक्षण आवश्यक है. प्रजातियों को "सौंदर्य और नैतिक औचित्य के लिए "मानव कल्याण के लिए आवश्यक उत्पादों तथा सेवाओं के प्रदाता के रूप में जंगली प्रजातियों की महत्ता , विशिष्ट प्रजातियों का मूल्य पर्यावरणीय स्वास्थ्य सूचक रूप में या पारिस्थितिकी प्रणालियों के कार्य करने के लिए मूल तत्त्व प्रजातियों का महत्व और वन्य जीवों के अध्ययन से हासिल वैज्ञानिक सफलताओं" के लिए बचाया जाना चाहिए
दूसरे शब्दों में, प्रजाति कला और मनोरंजन के स्रोत के रूप में सेवा करते हैं, मानव की भलाई के लिए दवा जैसे उत्पाद उपलब्ध कराते हैं, समग्र पर्यावरण और पारिस्थितिकी के कल्याण का संकेत देते हैं, और अनुसंधान उपलब्ध कराते हैं, जिनके परिणामस्वरूप वैज्ञानिक खोज संभव हो सके हैं. लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के "सौंदर्यपरक औचित्य" के अनेक उदाहरण है, जब किसी राष्ट्रीय उद्यान में किसी भूरे भेड़िये, या पांडा, या चीता या सफेद भालू या अन्य जानवर के प्रवेश की वजह से उद्यान में पर्यटकों की संख्या भारी मात्रा में बढ़ती है, और इसने संरक्षित क्षेत्र में जैव विविधता में योगदान दिया है
मानव की भलाई के लिए उत्पादों के प्रदाता के रूप में लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के समर्थन का एक अन्य उदाहरण है, स्क्रब मिंट. यह पाया गया है कि स्क्रब मिंट में कवकरोधी कारक और प्राकृतिक कीटनाशक मौजूद है इसके अलावा, गंजे गिद्ध और बहरे बाज़ की अधोगति ने डी.डी.टी और अन्य स्थाई कीटनाशकों के व्यापक छिड़काव से जुड़े संभावित स्वास्थ्य खतरों के प्रति लोगों को सतर्क कर दिया
इसी तरह कैसे कोई मछली पर्यावरणीय स्वास्थ्य की पहचान कराने वाले घटक के रूप में मददगार हो सकती है, और मानव जीवन तथा अन्य प्रजातियों की रक्षा कर सकती है
अंत में, वैज्ञानिक खोजों में सहायक प्रजातियों में एक उदाहरण है प्रशांत यू, जो "टेक्सॉल का स्रोत बन गया, जो कि अब तक की खोजों में सबसे शक्तिशाली कैंसर-रोधी यौगिक है
इस तरह लुप्तप्राय प्रजातियां मानव विकास, जैव विविधता के अनुरक्षण और पारिस्थितिकी प्रणालियों के संरक्षण में ज्यादा उपयोगी साबित हो सकती हैं
लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा में मदद तथा उपाय- इस महान कार्य में संरक्षण करने वालों का लक्ष्य है, कि लुप्तप्राय प्रजातियों का संरक्षण और जैव विविधता के अनुरक्षण के लिए तरीक़े बनाना और उनका विस्तार करना
दुनिया की विलुप्त होने जा रही प्रजातियों के संरक्षण में, कई तरीक़ों से सहायता की जा सकती है, इनमें एक तरीक़ा है, प्रजातियों के विभिन्न समूहों के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करना, ख़ास कर अकशेरूकी, कवक, और समुद्री जीवों के बारे में, जहां पर्याप्त डाटा की कमी है
उदाहरण के लिए, आबादी में गिरावट और विलोपन के कारणों को समझने के लिए, फ़िनलैंड में तितलियों की आबादी पर एक प्रयोग किया गया. इस विश्लेषण में, तितलियों का संकटग्रस्त सूची वर्गीकरण, वितरण, घनत्व, डिंभक विशिष्टता, प्रसारण क्षमता, वयस्क प्राकृतिक-वास का विस्तार, उड़ान अवधि और शरीर का आकार, सभी के संबंध में अभिलेख दर्ज और परीक्षण किए गए, ताकि प्रत्येक प्रजाति की संकट स्थिति का निर्धारण किया जा सके. यह पाया गया कि तितलियों के वितरण में साढ़े एक्यावन प्रतिशत तक की गिरावट आई है और उनका प्राकृतिक-वास गंभीर रूप से प्रतिबंधित हैं. विशिष्ट तितलियों के वितरण दर में गिरावट का एक उदाहरण है, फ़्रिग्गा का फ़्रिटिलरी और ग्रिज़ल्ड स्किपर, जो दलदल के व्यापक निकासी के फलस्वरूप उनके प्राकृतिक-वास क्षतिग्रस्त होने के कारण प्रभावित हुए हैं
इस प्रयोग से साबित होता है कि जब हमें जोखिम के कारण ज्ञात हों, तो हम सफलतापूर्वक जैव विविधता प्रबंधन के लिए समाधान तैयार कर सकते हैं लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण में मदद का एक अन्य तरीक़ा है, पर्यावरणीय नैतिकता को समर्पित एक नए व्यावसायिक समाज का निर्माण इससे परिस्थिति-विज्ञानियों को जैव विविधता के अनुसंधान और प्रबंधन में नैतिक निर्णय लेने में मदद मिल सकती है इसके अलावा, पर्यावरण नैतिकता पर अधिक जागरूकता पैदा करने से प्रजातियों के संरक्षण को प्रोत्साहित करने में सहायता मिल सकती है "छात्रों के लिए नैतिकता पाठ्यक्रम, और परिस्थिति-विज्ञानियों और जैव विविधता प्रबंधकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों" से पर्यावरण संबंधी जागरूकता पैदा हो सकती है और अनुसंधान तथा प्रबंधन में आचार संहिता के उल्लंघन को रोका जा सकता है
लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण का एक अंतिम उपाय है, संघीय एजेंसी निवेश और संघीय सरकार द्वारा संरक्षण अधिनियमन के माध्यम से बचाव. "परिस्थिति-विज्ञानियों ने जैव विविधता संरक्षण एकीकृत करने और वर्धमान बड़े पैमाने पर सामाजिक आर्थिक विकास के लिए, जैविक गलियारों, जैव मंडल भंडार, पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन, और पर्यावरण-क्षेत्रीय योजना प्रस्तावित किया है
संघीय अधिदेशाधीन संरक्षण अंचल का एक उदाहरण है, उत्तर-पश्चिमी हवाई द्वीपों का समुद्री राष्ट्रीय स्मारक, जो कि दुनिया में सबसे बड़ा समुद्री संरक्षित क्षेत्र है
अंतर्जलीय समुदायों और अधिक मछलीमारी वाले क्षेत्रों के संरक्षण के लिए स्मारक ज़रूरी है, केवल इस क्षेत्र में काम कर रहे अनुसंधानकर्ताओं को मछली मारने की अनुमति दी गई है, मूंगे हटाए नहीं जा सकते हैं और होमलैंड सुरक्षा विभाग, उपग्रह इमेजिंग के ज़रिए पानी से गुजरने वाले जहाज़ों पर प्रतिबंध लागू करते हैं
स्मारक अनुमानित सात हज़ार प्रजातियों के लिए, अधिकांशतः जो दुनिया में और कहीं भी नहीं पाए जा सकते, निवास का कार्य करेगा,यह पर्यावरणीय स्मारक यह तथ्य दर्शाता है कि लुप्तप्राय प्रजातियों के लिए एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण, साथ ही दुनिया के सबसे बड़े पारिस्थितिकी प्रणालियों में से कुछ का अनुरक्षण संभव है.
बंदी प्रजनन कार्यक्रम - पर्यावरण की रक्षा एवं पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन के लिए प्राणियों की संख्या में वृद्धि जरुरी है
बंदी प्रजनन, वन्य-जीव परिरक्षित क्षेत्रों, चिड़ियाघरों और अन्य संरक्षण सुविधा स्थलों जैसे प्रतिबंधित मानव नियंत्रित वातावरण में दुर्लभ या लुप्तप्राय प्रजातियों के प्रजनन की प्रक्रिया है ,बंदी प्रजनन का प्रयोजन विलुप्त होने वाली प्रजातियों को बचाना है. इससे अपेक्षा की जाती है कि प्रजाति की आबादी स्थिर हो, ताकि वह लुप्त के लिए ख़तरे से बच सके , कुछ समय के लिए इस तकनीक का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया, संभवतः प्राचीनतम ज्ञात बंदी संभोग के ऐसे उदाहरणों के लिए यूरोपीय और एशियाई शासकों की व्यवस्था को श्रेय दिया जा सकता है
बहरहाल, बंदी प्रजनन तकनीक, आम तौर पर कुछ प्रवासी पक्षियों (उदा. सारस) और मछलियों (उदा. हिल्सा) जैसी अत्यंत गतिशील प्रजातियों के लिए लागू करना मुश्किल होता है. इसके अतिरिक्त, यदि बंदी प्रजनन की आबादी बहुत कम है, तो न्यून जीन-पूल के कारण अंतःप्रजनन हो सकता है; इससे आबादी में रोगों के लिए प्रतिरक्षा की कमी संभव है
निजी लाभ के उत्पादनों पर रोक - पर्यावरण और प्राणियों के अस्तित्व के खतरे को देखते हुए, आज यह जरुरी हो गया है, कि अपने स्वार्थ सिद्धि के किये जा रहे अवैध शिकारों पर अंकुश लगाया जाये, जिससे आने वाली भावी पीढ़ियों को इस तरह की गलत हरकत करने से सबक मिल सके
अतः आज विश्व में अवैध शिकार पर रोक हेतु कड़े नियम बनाये गये है
इस कारण निम्नलिखित प्राणियों को गंभीर संकट से गुजरना पड़ रहा है,
संकटग्रस्त समुद्री ऊदबिलाव, अमेरिकी बाइसन, अपरिपक्व कैलिफोर्निया गिद्ध, राजकच्छप समुद्री कछुआ, सांता क्रूज़ लंबे पादांगुल वाला सैलामैंडर, एशियाई एरोवाना , इबेरीयन लिंक्स, यूरोप का सर्वाधिक संकटग्रस्त स्तनपायी
जहां भी अवैध शिकार के कारण लुप्तप्राय जानवरों की आबादी में काफ़ी कमी हो सकती है, वहीं लाभार्थ वैध निजी उत्पादन का विपरीत प्रभाव पड़ता है. वैध निजी उत्पादन से दोनों, दक्षिणी काले गैंडा और सफेद गैंडा की आबादी में काफी वृद्धि हुई है न लिंक्स, यूरोप का सर्वाधिक संकटग्रस्त स्तनपायी
प्रकृति संरक्षण अंतर्राष्ट्रीय संघ के अनुसार ऐसे कार्यक्रम को बनाया गया है, जिससे मुख्यतः निजी स्वामित्व वाले जानवरों की वजह से, प्रभावी कानून का प्रवर्तन अब बहुत ही आसान हो गया है
उपसंहार - आज सम्पूर्ण विश्व, पर्यावरण और प्रकृति के पारिस्थितिक तंत्र के असंतुलन से होने वाले दुष्प्रभाव से चिंतित है
जैसा हम सभी जानते है, कि पर्यावरण और प्राणी एक-दुसरे के पूरक है, अतः यदि प्राणियों की संख्या में कमी आती है तब पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है, इसके विपरीत पर्यावरण के विभिन्न घटकों के प्रदूषित होने से पृथ्वी पर रह रहे प्राणियों के अस्तित्व पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है
अतः ज्यादा जरुरी है, कि हम प्राणियों की सुरक्षा को पहली प्राथमिकता दे, जिससे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सके
यदि पृथ्वी का पारिस्थितिक तंत्र संतुलित होगा तो मौसम व जलवायु परिवर्तन को स्थिर रखने में सहायता होगी, जो प्रकृति की रक्षा के साथ हमें विभिन्न प्रकार की भयंकर प्राकृतिक बाधाओं से भी छुटकारा दिलाने में भी मदद करेगा
आज की यह महती आवश्यकता यह है, कि विश्व-भर की समस्त सरकारे जन-जाग्रति कार्यक्रमों करवाए एवं प्रकृति संरक्षण कानूनों में नए कानूनों को जोड़े तथा उसे कड़ाई से पालन करने की दूरगामी योजना बनाये ताकि लोगों में प्राणियों के अवैध शिकार को रोकने के साथ पर्यावरण कि रक्षा में मदद मिल सके | लोगों को भी चाहिए कि प्रकृति से लगाव बनाकर और अपनी स्वार्थ की पूर्ति की लालसा को त्याग कर पृथ्वी पर पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाए तथा लुप्त होते जंगलों और उसमे रहने वाले प्राणियों की सम्पूर्ण सुरक्षा की जिम्मेदारी ले जिससे आने वाली भावी पीढ़ी और मानव जाति की भलाई हो और इसको जीवंत रखने में सहायक हो सके|
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